गाँवों की सरकार या सरकार का गाँव ?– पंचायती राज की सार्थकता पर मंथन

द्वारा – शिवानी कर्णवाल ( M. Sc , Ex. HOD KLGM Saharnpur)

【 प्रासंगिकता- यह टॉपिक स्पष्ट रूप से पंचायती राज, विकेंद्रीकरण और स्थानीय शासन से जुड़ा है। इस टॉपिक से UPSC,UP PSC and BPSC के प्रीलिम्स ,मेंस तथा निबंध में प्रश्न पूछे जाते रहे है। उदाहरण के लिए कुछ प्रश्न-
“सच्चा लोकतंत्र ऊपर से नहीं नीचे से आता है।”(UPSC Essay Paper, 2015)
स्थानीय स्वशासन और सुशासन”(UPPSC Mains Essay Paper )
“पंचायती राज व्यवस्था: उपलब्धियाँ एवं चुनौतियाँ” (BPSC Mains, GS-IV में पूछा गया विश्लेषणात्मक प्रश्न) शेष प्रश्न अंत मे…. चलिए ,लौटते अब अपने टॉपिक पर】

समिति गठन सिफारिश
बलवंत राय मेहता समिति1957तीन-स्तरीय पंचायती राज की सिफारिश (ग्राम, ब्लॉक, जिला)
1959 में राजस्थान से शुरुआत हुई।
अशोक मेहता समिति 1978दो-स्तरीय प्रणाली (ग्राम और मंडल), पंचायतों को संवैधानिक दर्जा देने की सिफारिश
जी.वी.के. राव समिति 1986पंचायतों को विकास योजनाओं का मुख्य केंद्र बनाने की सिफारिश
एल.एम. सिंघवी समिति1987पंचायतों को संवैधानिक मान्यता देने, ग्रामसभा को मजबूत करने की अनुशंसा। बिना संविधान में जगह दिए, पंचायतें टिकाऊ नहीं बन सकती थीं। इसलिए: एल.एम. सिंघवी समिति (1987) ने पहली बार साफ कहा कि पंचायतों को संवैधानिक दर्जा देना चाहिए, नहीं तो ये कभी मज़बूत नहीं होंगी। इन्हीं के आधार पर राजीव गांधी सरकार ने 64वां संविधान संशोधन बिल लाया (1989 में), जो लोकसभा से पास हुआ पर राज्यसभा में अटक गया। बाद में नरसिंह राव सरकार ने संशोधित रूप में फिर बिल लाया — और 1992 में 73वां संविधान संशोधन अधिनियम पास हुआ लेकिन लागू हुआ 1993 से।

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