द्वारा – सोनू कुमार तिवारी
आरक्षण एक ऐसा शब्द है जो हमेशा से ही मीडिया और सत्ता के गलियारों में विमर्श का मुद्दा बना रहा है. यह शब्द न केवल भारतीय बल्कि वैश्विक परिप्रेक्ष्य में भी अपना प्रभावी स्थान रखता है. उदाहरण के लिए, बांग्लादेश में हालिया तख्तापलट के पीछे प्रमुख वजह आरक्षण व्यवस्था थी; जिसको समाप्त करने की मांग की जा रही थी. दूसरा उदहारण, हाल ही में अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट द्वारा ‘नस्ल और जातीयता’ के आधार पर दी जाने वाली आरक्षण की व्यवस्था को समाप्त कर देना. ये दोनों उदाहरण सम्बंधित देशों में आरक्षण व्यवस्था को समाप्त करने को लेकर हैं किन्तु आश्चर्य की बात है कि भारत में आजादी के 75 वर्षों के बाद भी आरक्षण व्यवस्था के दायरे को विस्तार करने पर चर्चा होती है. मूल संविधान में यह एक ‘अस्थायी उपाय’ के रूप में 10 वर्षों के लिए प्रस्तावित किया गया था. जिसके अंतर्गत सिर्फ अनुसूचित जातियां (SC) और अनुसूचित जनजातियां (ST) शामिल थीं. किन्तु राजनीति के मकड़जाल में फंसे इस आरक्षण की व्यवस्था के अंतर्गत अनुसूचित जातियों व् अनुसूचित जनजातियों के अतिरिक्त ओबीसी तथा ई डब्ल्यू एस के लोग भी शामिल किए गए हैं. प्रारंभ में आरक्षण सिर्फ नौकरी, शिक्षा तथा राजनैतिक क्षेत्र में ही शामिल था किन्तु अब इसे प्रमोशन के आलावा प्राइवेट नौकरियों में भी लागू करने की बात कही जा रही है. हाल ही में कुछ राजनितिक दलों ने धर्म आधारित आरक्षण और संविधान परिवर्तन करने जैसे बयानों से आरक्षण को एक नया विमर्श प्रदान किया है. धर्म आधारित आरक्षण पर चर्चा करने से पूर्व हमें आरक्षण एवं उसके आधार की ठीक समझ होना जरूरी है.
आरक्षण क्या है?
- आरक्षण का अर्थ किसी विशेष वर्ग या समुदाय के लिए शिक्षा, सरकारी नौकरियों, राजनीति और कुछ अन्य क्षेत्रों में कुछ प्रतिशत सीटें या अवसर सुरक्षित रखना है.
- प्रत्येक व्यक्ति की इच्छा हर स्थान पर अपनी जगह सुरक्षित करने की होती है चाहे वह रेल के डिब्बे में यात्रा करने के लिए हो, किसी विद्यालय में एडमिशन के लिए हो, किसी अस्पताल में अपनी चिकित्सा करने के लिए हो या नौकरी पाने की हो या फिर विधायक या सांसद का चुनाव लड़ने की बात हो. किन्तु आरक्षण की मूल भावना समाज के पिछड़े वर्गों को सामाजिक और आर्थिक रूप से ऊपर उठाना है ; अभावग्रस्त जनता का उत्थान करना है जिसके लिए सकारात्मक भेदभाव (Positive Descrimination) किया जा सकता है.
- आरक्षण की व्यवस्था न सिर्फ भारत बल्कि दुनिया के कई देशों में, विभन्न क्षेत्रों में, अलग-अलग स्वरूप या आधार पर लागू है.
भारत में आरक्षण क्यों आवश्यक है?
- भारत में जातिगत भेदभाव और छुआछूत का लम्बा इतिहास रहा है. विभिन्न समुदाय के लोग विभिन्न परिस्थितयों में जन्म लेते हैं जिससे सभी का आर्थिक अवसरों, सामाजिक हैसियत, राजनैतिक अधिकार तथा शैक्षिक उपलब्धियों आदि का स्तर समान नहीं होता है. ऐसी परिस्थिति में यदि सरकारी सेवाओं के लिए प्रतिस्पर्धा तथा राजनैतिक प्रतिस्पर्धा (चुनाव) कराई जाए, तो स्वाभाविक रूप से उस वर्ग या समुदाय के लोग आगे निकल जाएंगे जो सुविधा संपन्न और शिक्षित वर्ग से हैं. अत: यह प्रतिस्पर्धा के प्राकृतिक नियम के खिलाफ है. प्रतिस्पर्धा के लिए ‘इक्वल प्लेयिंग फील्ड’ होना जरूरी है.
- समानता (Equality) सुनिश्चित करने के लिए ‘सकारात्मक भेदभाव’ या फिर समता (Equity) की जरूरत हो सकती है, उदहारण के लिए कोई लम्बा व्यक्ति और एक बच्चे को किसी निश्चित ऊँचाई पर रखी हुई किसी वास्तु को छूने को कहा जाए तो संभावना है कि ऊँचे कद के व्यक्ति अपना हाथ उठाकर उस वस्तु को छू ले, लेकिन उस बच्चे को चौकी या मेज जैसी किसी चीज की जरूरत पड़ेगी. हमारे समाज में आरक्षण की भावना भी इसी विचारधारा से प्रेरित है.
- एक सवर्ण व्यक्ति का गरीब होना और एक दलित वर्ग के व्यक्ति का गरीब होना; दोनों ही सामान बात नहीं है. आर्थिक दृष्टि से वे समान हो सकते हैं पर सामाजिक समानता में दोनों के बीच गहरी खाई है. एक गरीब दलित को दोहरी मार झेलना पड़ता है. हमारे समाज में आज भी ‘डोम’, ‘चमार’ जैसे शब्दों का प्रयोग गाली देने के लिए किया जाता है. कहीं न कहीं यही वजह है कि आज जो दलित वर्ग के व्यक्ति सुविधा संपन्न हैं; वे भी अपनी जाति के नाम से बुलाया जाना पसंद नहीं करते हैं. उदहारण के लिए भंगी समाज के लोग खुद को भंगी कहलवाने में संकोच व्यक्त करते हैं. कहीं न कहीं उनके दिमाग में यह बात घर कर गयी है कि भंगी होना तथाकथित नीच होने की पहचान है. वर्तमान में इस जाति के लोग ‘वाल्मीकि समुदाय’ के नाम से संबोधित किए जाते हैं.
- संविधान सभा के सदस्य एस० नागप्पा ने आरक्षण पर तर्क देते हुए कहा था कि “मैं सभी आरक्षण को समाप्त करने के लिए तैयार हूँ बशर्ते कि प्रत्येक हरिजन परिवार को दस एकड़ गीली जमीन मिले और हरिजनों के सभी बच्चों को विश्वविद्यालय तक मुफ्त शिक्षा दी जाए और उन्हें नागरिक विभागों या सैन्य विभागों में प्रमुख पदों तक पांचवां हिस्सा दिया जाए.”
आरक्षण का संवैधानिक आधार एवं सीमाएं
- अनुसूचित जाति एवं जनजाति- संविधान का भाग- 16 केंद्र और राज्य विधायिका में SC / ST के आरक्षण से सम्बंधित है. अनुच्छेद 330 और 332 क्रमशः संसद और राज्य विधानमंडल में SC / ST को विशिष्ट प्रतिनिधित्व का अवसर प्रदान करते हैं. वहीँ पंचायत स्तर पर SC / ST के लिए क्रमशः 233T एवं 243D में प्रावधान है. संविधान के अनुच्छेद 15(4) और 16(4) राज्य एवं केंद्र सरकार को सरकारी सेवाओं में SC/ST के लिए सीटें आरक्षित करने का आदेश देते हैं. वर्तमान में सरकारी सेवाओं में SC को 15% तथा ST के लिए 7.5% आरक्षण है; वहीँ लोकसभा में SC के लिए 84 तथा ST के लिए 47 सीटें आराक्षित हैं.
- सामाजिक-शैक्षणिक और आर्थिक पिछड़ापन – अनुच्छेद 366 (26C) सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों को परिभाषित करता है. अनुच्छेद 342A के तहत राष्ट्रपति किसी भी जाति को सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ा वर्ग में अधिसूचित कर सकता है. 1980 में मंडल आयोग ने ओबीसी के लिए सरकारी नौकरियों में 27% आरक्षण की सिफारिश की थी, जो कि आज भी प्रभाव में है. इसप्रकार नौकरी तथा शिक्षा में SC को 15%, ST को 7.5% तथा ओबीसी को 27% आरक्षण दिया जाता है जो कुल 49.5 % है. चूंकि इंदिरा सहनी केस (1992) के फैसले के मुताबिक नौकरी एवं शिक्षा में 50% से ज्यादा आरक्षण नहीं दिया जा सकता है. अत: 2019 एसा 103वां संविधान संशोधन के माध्यम से आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्ण जातियों को 10% आरक्षण दिया गया. ध्यातव्य है कि आरक्षण की यह व्यवस्था 50% के कोटे से अलग है.
- लिंग- महिलाओं को ग्राम पंचायत और नगर चुनावों में 33% आरक्षण प्राप्त है. कुछ राज्य सरकारें अपनी सरकारी सेवाओं में भी महिलाओं के लिए कुछ प्रतिशत सीटें रिजर्व रखती हैं. हाल ही में संसद द्वारा ‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम 2023’ के म,अधयम से लोकसभा एवं राज्य विधान सभाओं में महिलाओं के लिए नारी एक तिहाई सीटें आरक्षित करने का प्रावधान किया गया है. लिंग आधारित आरक्षण भेदभावपूर्ण नहीं है क्योंकि संविधान का औछेद 15(3) एवं पंचायती राज अधिनियम ऐसा करने की शक्ति राज्य को प्रदान करता है.
नोट:- इसके अतिरिक्त दिव्यांगजनों को सरकारी नौकरियों में PWD कोटे के तहत 3 – 5 % आरक्षण दिया जाना अनुच्छेद 16(1) के अनुसार ‘अवसर की समानता’ पर आधारित है.
क्या आरक्षण का आधार धर्म हो सकता है?
धर्म के अधर पर सर्वप्रथम 1909 में आरक्षण प्रणाली के तहत मार्ले-मिंटो सुधार के द्वारा मुस्लिमों के लिए पृथक निर्वाचन की व्यवस्था की गई. इसके बाद 1936 में केरल में भी लागू किया गया. किन्तु धर्म आधारित आरक्षण को हमारा संविधान अनुमति प्रदान नहीं करता है. संविधान सभा की बहस के दौरान अधिकांश मुस्लिम नेताओं जैसे कि तजमुल हुसैन, मौलन हसरत, कर्नल बीएच जैदी तथा हिन्दू नेताओं ने एक स्वर में कहा कि धर्म के अधर पर आरक्षण देश के विभाजन के लिए जिम्मेदार है और निश्चित रूप से एक बुराई है. संविधान लागू होने के समय SC / ST के अलावा किसी अन्य वर्ग को आरक्षण नहीं दिया गया था.
संविधान के अनुच्छेद 15 के अनुसार राज्य, किसी नागरिक के पार्टी ‘केवल’ धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा. वहीँ अनुच्छेद 16 लोकनियोजन में समानता की बात करते हुए ‘केवल’ धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान व निवास स्थान के आधार पर भेदभाव को प्रतिबंधित करता है.
किन्तु ध्यान देने वाली बात यह है कि दोनों ही अनुच्छेदों में ‘केवल’ शब्द महत्वपूर्ण है अर्थात यदि कोई व्यक्ति या समुदाय सामाजिक, आर्थिक अथवा शैक्षणिक रूप ले पिछड़ा है; चाहें वह किसी भी जाति या धर्म का क्यों न हो उसे आरक्षण प्रणाली के तहत लाभ दिया जा सकता है. लेकिन इसका आधार जाति या धर्म नहीं होता है. आरक्षण का लाभ लेने वाले नागरिकों को अलग-अलग आरक्षित कोटा / वर्ग के तहत रखा जाता है. एक आरक्षित कोटे के तहत कई धर्म या जाति के लोग हो सकते हैं. उदहारण के लिए संविधान (SC) आदेश 1956 के अनुसार हिन्दू, सिक्ख और बौद्ध धर्म को मानने वाले दलित SC कोटा के तहत आरक्षण के पात्र हैं. इसीप्रकार ‘मंडल कमीशन 1979’ की सिफारिशों पर गठित ‘ओबीसी’ कोटे के तहत SC/ST और सवर्ण हिन्दुओं को छोड़कर शेष हिन्दू तथा बौद्ध, सिक्ख, ईसाई सभी को ओबीसी सूची का हिस्सा बनाया जा सकता है. अत: जो मुस्लिम जातियां ‘सामाजिक और शैक्षणिक रूप’ से पिछड़ी हुई हैं उन्हें ओबीसी कस अंतर्गत तथा शेष मुस्लिम जातियां जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं वे EWS के तहत आरक्षण के पात्र हैं. ध्यातव्य है कि EWS के अंतर्गत सवर्ण हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख और जैन समुदाय के नागरिक शामिल हैं. इसप्रकार स्पष्ट है कि संवैधानिक या कानूनी रूप से सिर्फ धर्म या जाति के आधार पर आरक्षण प्रतिबंधित है.
मुस्लिम आरक्षण पर विवाद क्यों?
निश्चित रूप से केन्द्रीय सूची में समग्र रूप से ‘संपूर्ण मुस्लिम समुदाय’ को आरक्षण नहीं दिया गया है. उन्हीं मुस्लिम जातियों को अरखन प्राप्त है जो अरक्षित कोटे के मानदंडों को पूरा करते हैं. वर्तमान में कर्नाटक सरकार ने एक कानून के माध्यम से ओबीसी कोटे के अंतर्गत उप-श्रेणी – 2(B) के तहत आने वाले मुस्लिम समुदायों को सरकारी ठेकों में 4% आरक्षण का प्रावधान किया है. अब यहाँ सवाल यह है कि ‘क्या मुस्लिमों को अलग से 4 फीसदी आरक्षण देना असंवैधानिक और भेदभावपूर्ण है? तो इसका जबाब है नहीं. क्योंकि इस कानून से पहले ही मुसलमानों को ओबीसी कोटे के तहत आरक्षण प्राप्त है. जस्टिस राजिंदर सच्चर समिति (2006) और रंगनाथ मिश्रा समिति (2007) ने भी मुस्लिम आरक्षण का समर्थन किया था.
हालिया विवाद के बीच यह प्रश् उठता है कि ‘की कर्नाटक राज्य में ओबीसी कोटा के तहत उप-श्रेणी 2B विधिक है’? इसका जबाब है कि इस श्रेणी की वैद्यता को न्यायिक चुनौती दी जा सकती है क्योंकि इस श्रेणी में वैसे लोग शामिल हैं जो अपना धर्म परिवर्तन करके मुस्लिम, बौद्ध अथवा ईसाई बने हैं. जो ईसाई और बौद्ध धर्मान्तरित हैं उन्हें 2% और जो धर्मान्तरित मुस्लिम हैं उन्हें 4% आरक्षण दिया गया है. सर्वोच्च न्यायालय ने अभी तक स्पष्ट नहीं किया है कि की धर्मान्तरित लोगों को ओबीसी कोटे के तहत आरक्षण दिया जा सकता है या नहीं? यह निश्चित रूप से संवेदनशील और विचारणीय बिंदु हो सकता है क्योंकि इससे धर्मांतरण को बढ़ावा मिल सकता है और आरक्षण का दुरुपयोग हो सकता है.
अल्पसंख्यक और मुस्लिम आरक्षण का प्रश्न
राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम – 1992 के तहत मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध, जैन और पारसी समुदाय को अल्पसंख्यक का दर्जा दिया गया है. भारतीय संविधान में अल्पसंख्यक शब्द की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं है. टीएमइ पाई वाद (2002) में सुप्रीम कोर्ट ने यह माना है कि अल्पसंख्यकों का निर्धारण राज्य स्तर पर होना चाहिए. अभी तक भाषाई अल्पसंख्यकों का निर्धारण राज्य स्तर पर तथा धार्मिक अल्पसंख्यकों का निर्धारण केंद्र स्तर पर किया जाता है. इनकी संख्या कुल जनसँख्या का 19% है.
भारतीय संविधान में अल्पसंख्यकों के विकास के लिए शैक्षिक अधिकार और उनकी भाषा एवं संस्कृति के संरक्षण के लिए अनुच्छेद 29 और 30 के तहत प्रावधान किए गए हैं. वे अपनी इच्छानुसार कोई भी संस्थान खोलने के लिए स्वतंत्र हैं तथा उन्हें अपने द्वारा खोले गए संस्थानों में 50 फीसदी तक आरक्षण रखने की आजादी है. किन्तु अल्पसंख्यकों के लिए सरकारी सेवाओं में अलग से कोई आरक्षण की कोई व्यवस्था नहीं है.
अगर मुस्लिम समुदाय को अल्पसंख्यक कोटे के तहत आरक्षण की बात की जाए तो यह अतार्किक और अवैध प्रतीत होता है. यदि ऐसा होता है तो कुछ राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों जैसे – लद्दाख, मिजोरम, लक्षद्वीप, जम्मू-कश्मीर, नागालैंड, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, पंजाब और मणिपुर में हिन्दू अल्पसंख्यक हैं; वे राज्य स्तर पर आरक्षण की मांग करने लगेंगे. इसप्रकार आरक्षण में जटिलता उत्पन्न होगी.
मुस्लिम आरक्षण के विषय पर एक गुट का मानना यह है कि – आरक्षण व्यवस्था जातिगत पैटर्न और छुआछूत पर आधारित है. इसका उद्देश्य समाज के उन वर्गों को मुख्यधारा में लाना है, जो ऐतिहासिक रूप से वन्चित और शोषित रहे हैं. इस्लाम धर्म छुआछूत और भेदभाव को स्वीकार नहीं करता है. इस्लाम समानता का समर्थक है जिसमें जातिगत भेदभाव नहीं है, अत: मुस्लिम आरक्षण, आरक्षण के मूल उद्देश्य के अनुसार उचित नहीं है.
यदि मुस्लिम समुदाय के बीच गरीबी और अशिक्षा पाई जा रही है तो सरकार द्वारा चलाई गयीं कई कल्याणकारी योजनाएं इसका समाधान हो सकती हैं. गरीबी और भेदभाव/ वंचना एक-दूसरे के पूरक नहीं हो सकते और आरक्षण का उपयोग गरीबी उन्मूलन योजना के रूप में नहीं किया जाना चाहिए.
भारत में मुस्लिम समुदाय सदियों तक शासक वर्ग रहा है. वर्तमान में भी अधिकांश मुस्लिम अभिजात्य वर्ग का भारत में अच्छा प्रतिनिधित्व है चाहे वह फिल्म इण्डस्ट्री हो या पत्रकारिता, उद्योग अथवा नौकरी, उनकी जनसँख्या की तुलना में SC/ ST से बेहतर स्थिति है.
निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि आरक्षण जैसे महत्वपूर्ण विषय पर एक बार पुनः नए और तार्किक तरीके से सोचने की जरूरत है. राजनीति और वर्ग-तटस्थता के साथ पुनः मूल्यांकन करने की आवश्यकता है कि मौजूदा आरक्षण प्रणाली कितना सफल रही. यह वास्तविक हकदार वर्ग को लाभ पहुँचाने में कितना कारगर रहा है? क्या इसके मौजूदा ढाँचे में परिवर्तन की जरूरत है? इन बिन्दुओं पर विचार करके ही हम संविधान सभा के सदस्यों की मंशा और आरक्षण के मूल उद्देश्यों में सफल हो सकते हैं.
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