- द्वारा – धर्मेन्द्र आर. यादव
किसी भी राष्ट्र में महिलाओं की स्थिति उस राष्ट्र की सामाजिक दशा व परम्पराओं की परिचायक होती है । महिलाएं समाज की रचनात्मक शक्ति होती हैं । शक्ति व सुन्दरता की प्रतीक नारी समाज सदैव विभिन्न प्रकार की सामाजिक व सांस्कृतिक वर्जनाओं के बावजूद निरंतर प्रगति के पथ पर अग्रसर है । बावजूद इसके हमारे समाज में स्त्री तिरस्कार पर मानवता रो रही है और कानून लाचार है। निंदनीय यह है कि जो महिलाएं किसी न किसी रूप में हमारी माँ, बहन और बेटी हैं, उन्हें ही हमारे समाज में शारीरिक एवं मानसिक हिंसा का सामना करना पड़ रहा है ।
आजाद भारत का संविधान ‘लैंगिक समानता’ की गारंटी देता है, जिसकी सुरक्षा के निमित्त स्त्रियों को अनेक सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक अधिकार भी प्रदान किये गए हैं । परन्तु आज़ादी के 70 वर्षों के उपरांत भी इस पितृ प्रधान समाज ने महिलाओं को वो अपेक्षित सम्मान नहीं दिया, जिसकी वो असल में हकदार हैं ।आज महिलाएं मातृ-छवि के साथ-साथ बहादुर बेटी व कामकाजी महिला के रूप में भी अपनी पहचान बना चुकी हैं । जहाँ एक ओर महिलाएं प्रत्येक क्षेत्र में पुरुषों के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रही हैं और अपनी अन्तर्निहित क्षमता के बल पर आत्मविश्वास एवं साहस के साथ पुरुष प्रधान समाज में अपने अस्तित्व का एहसास करवा रही हैं वहीं दूसरी ओर यौन उत्पीड़न, घरेलू हिंसा, बाल विवाह, विवाहोपरांत उनकी निजता की समाप्ति जैसी सामाजिक रूढ़ियों,कुरीतियों एवं मान्यताओं ने इन्हें बेबस व लाचार रहने को मजबूर किया है । वर्तमान समाज इतना निकृष्ट हो गया है कि नारी आज महज मिट्टी का खिलौना बनकर रह गयी है, जिससे पुरुष स्वेच्छानुसार खेल सकता है और उसे तोड़ सकता है । आज भी स्त्रियाँ यौन दासी एवं यौन हिंसा का शिकार हैं । घरेलू हिंसा, ऑनर किलिंग, बलात्कार, कन्याभ्रूण हत्या, कन्या शिशु हत्या,तेजाब हमला, दहेज़ प्रथा की यातना, स्त्री दाह, बहू हत्या जैसी कुरीतियाँ आज भी हमारे समाज से दूर नहीं की जा सकीं हैं । जो लड़कियां पढ़-लिखकर नाम रोशन कर रहीं हैं, उन्हें भी विवाह के बाजार में ऊंची-ऊंची कीमतों पर खरीदा या बेचा जा रहा है ।
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि विश्व-समाज में नारी ने सदा से ही अपने आपको सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षणिक व सांस्कृतिक क्षेत्रों में उपेक्षित ही पाया है। सच तो यह है कि पुरुषवादी मानसिकता के विकास ने महिलाओं की स्थिति को गंभीर रूप से प्रभावित किया है । हालाँकि राजनीतिक अधिकारों द्वारा उन्हें सशक्त बनाने का प्रयास किया गया है फिर भी समाज में उनकी स्थिति पुरुषों के मुकाबले कमतर ही बनी हुई है। दु:खद यह है कि जिसे हम सभ्य समाज या आधुनिक समाज की संज्ञा देते हैं उसी तथाकथित सभ्य समाज में इन कुरीतियों का दायरा बहुत बढ़ा हुआ प्रतीत होता है।
भारत में तो प्राचीन काल से ही नारी को देवी का रूप प्रदान किया गया था, जो कि समाज में महिला के उन्नत दशा का परिचायक है । हमारे यहाँ प्राचीन काल से ही स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार थे, कन्याओं का भी उपनयन संस्कार होता था ; वे भी स्वेच्छा से ब्रह्मचर्य जीवन निर्वहन कर सकती थीं । किन्तु आधुनिक समाज में तमाम कोशिशों के बावजूद भी महिलाओं को सामाजिक हाशिये पर ही पाया गया है । दरअसल, यह समाज की महिला के प्रति तंग सोच का द्योतक है । यह सोच हमारे सामाजिक ढांचे यानि पितृसत्तात्मक समाज की ही अभिव्यक्ति है । लड़के के प्रति अधिक झुकाव की प्रवृति आम घरों में देखी जा सकती है और वही लड़की गर्भ में ही मारी जाती है । पैदा हो भी गई तो उसका जीवन सुरक्षित बना रहे ; इसकी भी कोई गारंटी नहीं होती है। ऐसे वातावरण में किसी महिला के प्रति एक पुरुष के मन में कितना सम्मान रह जाता है यह सोचने वाली बात है । इस प्रकार महिला पुरुष के लिए महज उपभोग की वस्तु बनकर रह जाती है । उल्लेखनीय है कि यदि कोई स्त्री किसी पुरुष के साथ होती है, तो वह मर्यादा के नाम पर ठगी जाती है और जब वह अकेली होती है तो उसे लाचार, कमजोर व मजबूर समझकर उसका शोषण किया जाता है। एक आम अवधारणा यह बन चुकी है कि पुरुष चाहे कितने ही मित्र बना ले लेकिन महिलाओं के अनेक मित्र नहीं होने चाहिए । तभी तो हमारे समाज में स्त्री का जीवन आज भी ‘आँचल में दूध और आँखों में पानी’ से अधिक नहीं है ।
पुरुषों ने हमेशा महिलाओं को कठपुतली के रूप में इस्तेमाल किया है ; नि:संदेह इसके लिए पुरुष ही जिम्मेदार हैं किन्तु महिलाओं को भी यह समझना होगा कि उन्हें अपने अधिकारों की लड़ाई स्वयं लड़नी होगी। यहाँ पर हमें 1977 की नोबेल पुरुस्कार विजेता ‘रोसलिन सुसमेन यलो’ की बात को याद रखना चाहिए कि“अगर कोई भी समाज यह सोचता है कि अपनी आधी आबादी की सहभागिता की उपेक्षा कर ग़रीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत समस्याओं का समाधान करने में सफल होगा, तो ये उसकी ग़लतफ़हमी है और वो समाज अपनी तथा आने वाली पीढ़ी के साथ छल कर रहा है।
”बेशक कुछ वर्षों से महिलाओं के राजनीतिक और आर्थिक अधिकारों में वृद्दि हुई है, जिससे विकास के प्रत्येक क्षेत्र में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ी है। कुछ क्षेत्रों में तो महिलाएं पुरुषों से भी आगे बढकर नए कीर्तिमान स्थापित कर रही हैं ; फिर भी सामाजिक रूप से महिलाओं की स्थिति में अपेक्षित सुधार नहीं हुआ है । हालाँकि इस दिशा में निरंतर प्रयास किये जा रहे हैं । वैसे भी हमें अपने बेहतर भविष्य तथा स्त्री-पुरुष सामाजिक संतुलन हेतु वर्तमान में इस दिशा में ठोस प्रतिमान स्थापित करने ही होंगे ताकि महिलाएं अपेक्षित सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकें। ज्ञातव्य है कि प्राचीन काल से वर्तमान तक भारत में महिलाओं का प्रत्येक क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।
हमे स्वस्थ व बेहतर समाज के निर्माण के लिए आधी आबादी को समुचित सम्मान व समान अधिकार देने ही होंगे । स्मरण रहे कि पुरुष-स्त्री का सम्बन्ध प्रभु-दासी का नहीं है बल्कि यह सम्बन्ध मित्रता और सहभागिता पर आधारित होना चाहिए । हमे समाज निर्माण में विषमता उत्पन्न करने वाले कारकों को मिटाना होगा जिसके लिए हमें अपनी सोंच में सकारात्मक बदलाव लाना होगा । ऐसी सकारात्मक सोंच के निर्माण हेतु हमे अपनी शिक्षा प्रणाली में व्यापक परिवर्तन करने होंगे । यहाँ सवाल स्त्री सुरक्षा के साथ-साथ हमारी सामाजिक सोंच में बदलाव का भी है क्योंकि केवल क़ानून बनाने से ही समस्याओं का समाधान संभव नहीं है, सूरत बदलने के लिए समूचे समाज को बदलना होगा ।